Wednesday, August 7, 2013

छिपी है भीतर रस की आकर

दिसम्बर २००४ 
कृष्ण ने इस धरा पर जो लीला की थी, वह अपने भीतर के रस को अभिव्यक्त करने के लिए ही तो की थी. हमें भी अपने भीतर के रस को आस-पास बिखराना है, ध्यान से यह सहज ही होता है. हम प्रेम के रस से ही बने हैं, प्रेम में ही हमारा विलय होगा. जो हमारे अपने हैं, हितैषी हैं उन्हें तो हमारा प्रेम मिलता ही है, यह सारा जगत हमारे अंतर की ऊष्मा से वंचित न रहे. हम दाता बनें. जिस परमात्मा ने हमें सिरजा है वह भी हमसे मात्र प्रेम ही चाहता है. संतजन कहते हैं वह हमें निरंतर प्रेम भरी नजर से निहार रहा है, जैसे माँ के लिए उसकी सन्तान हो वैसे ही. हर कोई यहाँ अपनी-अपनी क्षमता से यही तो कर रहा है, कवि, संगीतज्ञ, चित्रकार, मूर्तिकार अपने भीतर के माधुर्य को उंडेलना चाहते हैं, मानो भीतर कोई सोता बह रहा है जो अनंत से जुड़ा है.


4 comments:

  1. सुंदर सार्थक बात अनीता जी ....आभार ।

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  2. प्रेम में देना ही लेना है और अन्यत्र नहीं। खूब सूरत।

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  3. अनुपमा जी, देवेन्द्र जी, वीरू भाई, उपासना जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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