Wednesday, September 25, 2013

तप कर कुंदन होवे स्वर्ण

मार्च २००५ 
तितिक्षा के बिना प्राप्त किया हुआ ज्ञान सफल नहीं होता, सुविधापूर्ण जीवन जीने की इच्छा हमें तप करने से रोकती है, कष्ट से घबराना सिखाती है, लेकिन इससे हमारे भीतर की शक्तियाँ बाहर नहीं आ पातीं. हमारे शरीर में शक्ति केंद्र हैं, जिनमें अनंत शक्ति है. मूलाधार केंद्र में जड़ता तथा चैतन्य दोनों हैं. जड़ता का अनुभव हर कोई करता है पर चेतना का कोई तप करने वाला ही. स्वाधिष्ठान केंद्र में काम तथा सृजन करने की क्षमता है. मणिपुर में लोभ, इर्ष्या, संतोष तथा उदारता हैं. हृदय में प्रेम, द्वेष तथा भय हैं. विशुद्धि चक्र में कृतज्ञता तथा दुःख की भावना शक्ति है. आज्ञा चक्र में ज्ञान तथा क्रोध व सहस्रहार में आनन्द ही आनन्द है. हम प्रतिपल सजग रहें तो नकारात्मक वृत्तियों के शिकार नहीं होंगे, तब सकारात्मक को पनपने का अवसर मिलेगा ही. सजगता भी तप है और विनम्रता भी तप है. देह को सदा सुख-सुविधाओं में रखकर हम अपने भीतर रहने वाले चैतन्य देव को जागृत होने का अवसर नहीं देते, वह हमारे माध्यम से प्रकट होना चाहता है, अपना अनंत प्रेम हमें देना चाहता है. हम उसकी आवाज को अनसुना कर देते हैं. हम पत्थरों को थामते हैं, हीरों को त्याग देते हैं. निद्रा के तामसी सुख के पीछे ध्यान का सात्विक सुख त्याग देते हैं. स्वार्थी होकर सेवा के महान व्रत से दूर रहते हैं. देह बुद्धि से ऊपर उठते ही हमारा जीवन खिलने लगता है. इसके लिए तप तो करना ही होगा.

4 comments:

  1. जो गर्भ में बाहर से प्रवेश करती है वह आत्मा (मैं )होती है। फलाना जब मरता है तब फलाना नहीं मरता उसकी देह मरती है कहना चाहिए फलाना देह से निकल गया शरीर छोड़ गया। देह के सम्बन्ध मारते हैं आदमी को। कमाल यह है यहाँ इस संसार में जीव किसी का बाप है किसी का पति यानी अन्य जीवों से सम्बन्ध बनाए ठगा जा रहा है जब की उसके सर्व सम्बन्ध सिर्फ उससे हैं जो उसके हृदय में जीव के बाप के रूप में है जीव माने आत्मा। जीव का बाप परमात्मा,मौजूद है।

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  2. सही कहा है आपने.. आभार!

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  3. सही कहा है आपने.. आभार!

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  4. सही कहा है आपने.. आभार!

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