फरवरी २००८
जो स्वरूप
को प्रकट करे वह कला है, और जो ब्रह्म को जान ले वही कलाकार है. ऐसा कोई बिरला ही
होता है, और कोई जान भी ले तो दूसरों को जना नहीं सकता, वह तो और भी बिरला है. सभी
ब्रह्म होने का बीज लिए आते हैं पर बीज लिए ही चले जाते हैं, ऐसे बीज और कंकर में
अंतर ही क्या ? बीज जब अंकुरित हो और फूल खिलाये तभी परमात्मा के दरबार में जा
सकता है. जैसे बीज को मिटना होता है वैसे ही मन को भी मिटना होता है, तभी ब्रह्म
का फूल खिलाना सम्भव होता है. ब्रह्म की झलक मिल भी जाती भी है पर उसे टिकाये रखना
कठिन है. ‘मैं’ भाव छोड़ने को जो तैयार हो जाये वही मन से अमन में चला जाता है.
जिन्होंने त्यागा उन्होंने भोगा. ऋषियों ने इस सत्य को जाना और पाया कि परमात्मा
के सिवा और कुछ यहाँ है ही नहीं !
No comments:
Post a Comment