Friday, June 12, 2015

उठ जाग मुसाफिर भोर भई

दिसम्बर २००९ 
इस जगत में सभी तो दुखी दिखाई पड़ते हैं, कोई एक दूसरे को नहीं समझता, लेकिन यही तो होना ही चाहिए. जब सभी की बुद्धि पर मोह का पर्दा पड़ा हो तो कोई खुश रह भी कैसे सकता है. मन ही दुःख का जनक है और मन नाम है अहंकार का. अहंकार पुष्ट होता है अपनी छवि को पुष्ट करने से, छवि पुष्ट होती है अपने बारे में सत्य-असत्य धारणाएं पालने से. इच्छाओं की पूर्ति होती रहे तो भी अहंकार पुष्ट होता है. अपने में कोई सद्गुण हो या न हो पर होने का वहम हो तो भी अहंकार पुष्ट होता है और यह अहंकार दुःख का भोजन करता है. जब हम अपने ही बनाये भ्रम को टूटते देखते हैं तो भीतर छटपटाहट होती है, यह सब सूक्ष्म स्तर पर होता है इसलिए कोई इसे समझ नहीं पाता, वही समझता है जो अपने भीतर गया हो जिसने मन का असली चेहरा भली-भांति देखा हो. जो मन को ही स्वयं मानता हो, वह कैसे इसे पहचानेगा. इसीलिए जगत में कोई दोषी नहीं है अथवा तो सभी दोषी हैं. संतजन यही तो कहते आये हैं, जो जगा नहीं है वह दुःख पाने ही वाला है.  

4 comments:

  1. सुख और दुख मात्र - मन की उपज है ।
    सुन्दर - रचना ।

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  2. देवेन्द्र जी व शकुंतला जी, स्वागत व आभार

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  3. देवेन्द्र जी व शकुंतला जी, स्वागत व आभार

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