शिव नीले आकाश की तरह विस्तीर्ण हैं, वे चाँद-तारों को अपने भीतर समाए हुए हैं। वे आशुतोष हैं अर्थात् बहुत शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं। उन्हें भोले बाबा भी कहा जाता है और औघड़ दानी भी क्योंकि वे असुरों को भी वरदान दे देते हैं, जबकि बार-बार वे उनके वरदान का दुरुपयोग करते हैं। आत्मा रूप से वे हरेक के भीतर हैं, जब हम मन, बुद्धि और अहंकार को शांत करके भीतर ठहर जाते हैं तो शिव तत्व में ही स्थित होते हैं। वह सर्व व्यपक हैं, सदा सजग हैं, अमर, अविनाशी चेतन तत्व हैं। वह मुक्त हैं। वे संसार की रक्षा के लिए विष को अपने कंठ में धारण करते हैं। उन्हें पशुपति और भूतनाथ भी कहते हैं, अर्थात् पशु जगत और भूत-पिशाच आदि भी उनकी कृपा से वंचित नहीं हैं। उमा को समझाते हुए वे कहते हैं, यह जगत स्वप्न वत है। केवल शुद्ध चैतन्य ही सत्य है। वे निराकार हैं, ओंकार स्वरूप हैं, सबके मूल हैं और ज्ञान स्वरूप हैं। वे इंद्रियों से अतीत हैं। उन्हें महाकाल भी कहा जाता है क्योंकि वे काल से भी परे हैं। वे सत, रज और तम तीनों गुणों के भी स्वामी हैं। शिव की आराधना और उपासना करने पर भक्त भी अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव कर लेते हैं।
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (02-03-2022) को चर्चा मंच "शंकर! मन का मैल मिटाओ" (चर्चा अंक 4357) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी!
Deleteशिवरात्रि की शुभकामनाएँ
ReplyDeleteस्वागत व आभार!
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