मन की धारा यदि भीतर की ओर मुड़ जाये तो राधा बन जाती है इसी तरह मन की हजारों वृत्तियाँ गोपियाँ क्यों नहीं बन सकतीं। हमारी ‘आत्मा’ ही वह कृष्ण है जिसे रिझाना है. जीवन का कोई भरोसा नहीं है, श्वास रहते-रहते उस तक जाना है, जाना है, कहना भी ठीक नहीं, वह तो सहज प्राप्य है. मध्य में जो आवरण है उसे हटाना है. संसार से सुख पाने की कामना का त्याग करना है, तभी सहज प्राप्त सुख दीखने लगेगा. एक ही निश्चय रहे तो सारी ऊर्जा उस एक की तरफ बहेगी. एक ही व्रत हो और एक ही लक्ष्य कि भीतर के प्रकाश को बाहर फैलाना है. जिसके आने पर जीवन में बसंत छा जाता है. सद्विचारों के पुष्प खिल जाते हैं और प्रीत की मंद बयार बहने लगती है. जैसे वसंत में दिन-रात समान हो जाते हैं, वैसे ही भीतर हानि-लाभ समान हो जाते हैं.
आप तो अपना भीतरी प्रकाश बाहर फैला ही रहे हो। धन्य हैं हम।
ReplyDeleteसमय साक्षी रहना तुम by रेणु बाला
यह प्रकाश हरेक को स्वयं ही खोजना पड़ता है, कृष्ण, राम, बुद्ध, या कोई भी संत कितना ही प्रकाश फैलाए जब तक साधक अपना दीप स्वयं नहीं जलाता, उससे वंचित ही रहता है।
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (6-2-22) को "शारदे के द्वार से ज्ञान का प्रसाद लो"(चर्चा अंक 4333)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार!
Deleteअद्भुत और अप्रतिम भावाभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteस्वागत व आभार मीना जी!
Deleteआदरणीया अनिता जी, बहुत सुंदर रचना, आपने जीवन के रहस्य को उजागर किया है। साधुवाद!--ब्रजेंद्रनाथ
ReplyDeleteस्वागत व आभार!
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