हमारा निस्वार्थ एकांतिक प्रेम सहज ही इस जगत के प्रति प्रवाहित होता रहे, ऐसी प्रार्थना हमें परमात्मा के निकट ले जाती है। हमारा अंतर दिव्य आनंद से भरा रहे और उसकी किरणें आस-पास बिखरती रहें, यही कामना तो हमें करनी है। हमें यह तन, मन और सही निर्णय करने की क्षमता के रूप में बुद्धि उपहार के रूप में मिले हैं। इन्हें बंधन का कारण मानकर मुक्ति की तलाश करते रहेंगे तो जीवन अपरिचित ही रह जाएगा। तन, मन आदि हमारे लिए साधन स्वरूप हैं जिनके माध्यम से हमें जगत में कार्य करना है। अपने आत्मस्वरूप में स्थित होकर परमात्मा की अपार शक्तियों के द्वारा जितना हो सके जगत में आनंद फैलाना है।
सार्थक सृजन अति उत्तम
ReplyDeleteस्वागत व आभार!
Deleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteसादर
बहुत ही सुन्दर प्रार्थना.. यदि इसे आत्मसात कर लिया जाए तो खुद का भी कल्याण हो जाए और जगत का भी,सादर नमस्कार आपको
ReplyDeleteसही कह रही हैं आप, हट शुभ प्रार्थना से खुद का कल्याण पहले होता है। आभार!
Deleteसाधन और साध्य का अंतर पहचान लेने पर ही मुक्ति की ओर अग्रसर हो सकते हैं परंतु हम साधारण मानवों को तो चंचल मन उल्टा ही दिखाता है और हम साधन को ही साध्य समझ बैठते हैं।
ReplyDeleteगीता में कृष्ण ने अर्जुन को इसी प्रश्न का उत्तर तो दिया है, साधना के निरंतर अभ्यास से मन स्थिर होकर मित्र बन जाता है। साधारण मानव जैसा तो कोई नहीं है, हर कोई असाधारण है, परमात्मा की शक्ति हरेक के भीतर समान है
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