प्रेम कोई कृत्य नहीं है, यह मन की एक अवस्था है जिसमें कोई द्वंद्व नहीं है, विरोध नहीं है, पूर्णत: स्वीकार भाव है।, मन जब तरंगित तो हो पर उद्वेलित ना हो, उत्साह से भरा हो पर उत्तेजित ना हो। आतुरता तो हो पर किसी कार्य को अथवा बात को ऐसे ही होना चाहिये, ऐसी अकुलाहट ना हो। मन की इस शांत अवस्था का नाम ही प्रेम में होना है। शांति के उपवन में ही प्रेम का फूल खिलता है और इस पुष्प से आनंद की सुगंध विसर्जित होती है। सुख इस फूल की कली अवस्था का नाम है। ऐसे में मन में न दीनता रहती है न हीनता, अर्थात स्वयं की शक्ति का पूर्ण ज्ञान होता है । कोई विकार भी वहाँ ठहर नहीं पाता।
खुबसूरत विचार
ReplyDeleteस्वागत व आभार!
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