देह ऊर्जा का एक केंद्र है. ऊर्जा का चक्र यदि पूर्णता को प्राप्त न हो तो जीवन में एक अधूरापन रहता है. प्रार्थना में भक्त भगवान से जुड़ जाता है और चक्र पूर्ण होता है, तभी पूर्णता का अहसास होता है. हर व्यक्ति अपने आप में अधूरा है जब तक वह किसी के प्रति समर्पित नहीं हुआ. यही पूर्णता की चाह अनगिनत कामनाओं को जन्म देती है. व्यर्थ ही इधर-उधर भटक के अंत में एक न एक दिन व्यक्ति ईश्वर के द्वार पर दस्तक देता है. इस मिलन में कभी आत्मा परमात्मा हो जाता है और कभी परमात्मा आत्मा. मन जहाँ जहाँ अटका है, उसे वहाँ-वहाँ से खोलकर लाना है. इस जगत में या तो किसी के प्रति कोई जवाबदेही न रहे अथवा तो सबके प्रति रहे. एक साधक का इसके सिवा क्या कर्त्तव्य है कि भीतर एकरसता बनी रहे, आत्मभाव में मन टिका रहे. जीवन जगत के लिए उपयोगी बने, किसी के काम आए. अहम का विसर्जन हो. परमात्मा ही हमारा आदर्श है जो सब कुछ करता हुआ कुछ भी न करने का भ्रम बनाये रखता है. चुपचाप प्रकृति इतना कुछ करती है पर कभी उसका श्रेय नहीं लेती. फूल खिलने से पहले कितनी परिस्थितियों से दोचार नहीं होता है, बादल बरसने से पहले क्या-क्या नहीं झेलता. हम हर काम करने के बाद औरों के अनुमोदन की प्रतीक्षा करते हैं. हम भी छोटे-मोटे परमात्मा तो हैं ही, मस्ती, ख़ुशी तो हमारे घर की शै है, इन्हें कहीं मांगने थोड़े ही जाना है.
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