संसार से सुख लेने की आदत ने मनुष्य को परमात्मा से दूर कर दिया है। यह सुख जुगनू के टिमटिमाने जैसा प्रकाश देता है और ईश्वरीय सुख सूर्य के प्रकाश जैसा है। दोनों में कोई तुलना हो सकती है क्या ? ईश्वर को सच्चिदानंद कहा गया है। सत अर्थात् उसका अस्तित्त्व कण-कण में है, चित अर्थात् वह चेतन है और वह शुद्ध आनंद स्वरूप है। जो सदा है, हर स्थान पर है, चेतन है तथा आनंद है वही ईश्वर है। इसका अर्थ हुआ वह सदा आनंद के रूप में हमारे भीतर भी है। मन उसी चेतन के कारण चेतना का अनुभव करता है। मन सागर की सतह पर उठने वाली लहरों की भाँति है और परमात्मा वह आधार है जिस पर सागर टिका है। लहर यदि गहराई में जाए तभी सागर के तल का स्पर्श कर सकती है। हम परमात्मा का सान्निध्य पाने के लिए ध्यान द्वारा मन की गहराई में जाएँ तभी उस आधार को जान सकते हैं। हरेक को यह अनुभव स्वयं ही करना होगा अन्यथा परमात्मा के विषय में भ्रम की स्थिति कभी भी दूर होने वाली नहीं है।
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (16-02-2022) को चर्चा मंच "भँवरा शराबी हो गया" (चर्चा अंक-4343) पर भी होगी!
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी!
ReplyDelete