हमने इस जगत में अपने चारों ओर कुछ लोगों को वस्तुओं का गुलाम बनकर दुखी होते हुए तथा कुछ सजग व्यक्तियों को अकिंचन होकर भी प्रसन्न रहते हुए देखा है. वास्तविकता को भूले हुए कुछ लोग अपनी आवश्यकता से अधिक सामान इकट्ठा करते रहते हैं, फिर उसकी साज-संभार में अपनी ऊर्जा को व्यर्थ गंवाते हैं. हमारी ऊर्जा का उपयोग स्वयं को तथा स्वयं के इर्दगिर्द का वातावरण संवारने में होता रहे, तभी उसकी सार्थकता है. इसके लिए हमें समझना होगा कि आवश्यकता तथा इच्छा में अंतर है, इच्छाओं का कोई अंत नहीं पर आवश्कताएं सीमित हैं. आवश्यकता की पूर्ति होती है, उसकी निवृत्ति विचार द्वारा नहीं हो सकती पर इच्छा की निवृत्ति हो सकती है.अपनी इच्छाओं को पूरा करने के प्रयास में हम अपनी सहज आवश्यकता को भी भुला बैठते हैं.परमात्मा प्राप्ति की इच्छा पूर्ण होने वाली इच्छा है, पर संसार प्राप्ति की इच्छा कभी पूर्ण नहीं हो सकती. ईश्वर प्राप्ति की इच्छा वास्तव में हमारी आवश्यकता है, हर जीव आनंद चाहता है, क्योंकि वह ईश्वर का अंश है, उसमें अपने अंशी से मिलने की जो स्वाभाविक चाह है, वह उसकी नितांत आवश्यकता है. जैसे भूख, प्यास आदि आवश्यकताओं की पूर्ति भोजन, जल आदि से हम करते हैं, वैसे ही हमारी आनन्द प्राप्ति की आवश्यकता की पूर्ति ईश्वर प्राप्ति के बाद ही होती है.
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