Thursday, September 26, 2013

सुख-दुःख स्वयं जगाता है मन

मार्च २००५ 
ज्यादातर समय हमारा मन अतीत व भविष्य की उधेड़बुन में लगा रहता है, संतजन कहते हैं जो मन को साक्षी भाव से देख सकता है, उसके मन में स्थिरता आती है. शरीर की संवेदनाओं के प्रति सजग होते होते साधक को पता चलता है की स्थूलपना खत्म होता जा रहा है, तरंगे बनती हैं फिर खत्म होती हैं. क्रोध, लोभ आदि विकार भी स्थायी नहीं हैं, शरीर, मन, बुद्धि सभी बदल रहे हैं. कान में ध्वनि तरंग पड़ते ही भीतर भी एक तरंग उठती है. आंख में जब देखते हैं तो भीतर एक तरंग उठती है. यदि दृश्य सुखद हुआ तो मन उसे पसंद करने की तरंग जगाता  है, यदि दुखद हुआ तो दुखद संवेदनाएं जगाता है. ऊपर से लगता है हम दुखद या सुखद घटना के प्रति प्रतिक्रिया जगाते हैं पर वास्तव में संवेदनाओं के प्रति ही प्रतिक्रिया करते हैं. गहराई में जाकर हम देखते हैं कि दुःख या सुख हम अपनी प्रतिक्रियाओं के कारण ही अनुभव करते हैं, जब हम यह देखते हैं की ये संवेदनाएं क्षणभंगुर हैं तो हम राग-द्वेष से मुक्त होने लगते हैं. हम जानने लगते हैं कि विकार जगते ही मन की शांति भंग होती है, तब हम विकार से मुक्त होने लगते हैं. 

1 comment:

  1. ऊपर से लगता है हम दुखद या सुखद घटना के प्रति प्रतिक्रिया जगाते हैं पर वास्तव में संवेदनाओं के प्रति ही प्रतिक्रिया करते हैं. गहराई में जाकर हम देखते हैं कि दुःख या सुख हम अपनी प्रतिक्रियाओं के कारण ही अनुभव करते हैं, जब हम यह देखते हैं की ये संवेदनाएं क्षणभंगुर हैं तो हम राग-द्वेष से मुक्त होने लगते हैं. हम जानने लगते हैं कि विकार जगते ही मन की शांति भंग होती है, तब हम विकार से मुक्त होने लगते हैं.

    ठहरता कुछ भी नहीं है यहाँ न दुःख न सुख।

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