Wednesday, January 8, 2014

वंशीधर घट घट का वासी

जून २००५ 
धैर्य खोकर हम हमारे छोटे से दुःख को भी बड़ा बना लेते हैं और धैर्य रखकर बड़े दुःख को तिलमात्र का ! हम लोगों के बारे में एकतरफा राय बना लेते हैं और उसी के अनुसार उनसे व्यवहार करते हैं, यही माया है, चीजें जैसी हैं वैसी ही दिखने लगें तभी समझना चाहिए कि माया से मुक्त हुए. हम स्वयं को कुछ ज्यादा ही महत्व देते हैं, यह दुनिया हमारे बिना भी बेहतर ढंग से चल रही थी और हमारे न होने पर भी चलती रहेगी. जब तक हमें अपना पता नहीं है तब तक जो कुछ भी हमारे साथ होता है वह हमारे लिए उस परमपिता परमेश्वर ने ही ही रच है, इस भावना से यदि हम भावित रहें तो कोई द्वंद्व नहीं होगा. मृत्यु से पहले हमें खुद को जानना है यह लक्ष्य याद रहे तो समय का सदुपयोग होगा. हमारा जीवन प्रभु की अनमोल देन  है उसी की धरोहर है यह भाव दृढ होते ही वह हमारे, प्राणों में अपनी बांसुरी के स्वर भर देता है. नयनों में अपना प्रकाश. उससे मिले कई युग बीत गये हों पर वह कभी दूर गया ही नहीं. 

5 comments:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (10.01.2014) को " चली लांघने सप्त सिन्धु मैं (चर्चा -1488)" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है,नव वर्ष कि मंगलकामनाएँ,धन्यबाद।

    ReplyDelete
  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन कहीं ठंड आप से घुटना न टिकवा दे - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

    ReplyDelete
  3. "मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।" मधुर - मार्मिक - मनोरम ।

    ReplyDelete
  4. राजेन्द्र जी, शकुंतला जी व देवेन्द्र पाण्डेय जी आप सभी का स्वागत व आभार !

    ReplyDelete