Wednesday, September 11, 2013

प्रेम से प्रकट होए मैं जाना

फरवरी २००५ 
साधक को आत्म-वीक्षण की जरूरत है, आत्म-परीक्षण की नहीं, हमें अपने मन को संशय में नहीं डालना है, जो मन से परे है उसे मन से नहीं जाना जा सकता. जब भीतर मन ध्यानस्थ होने लगता है तो रस प्रकट होता है और तब अहंकार को ठहरने के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता, अहंकार का भोजन दुःख है, प्रेमपूर्ण होने से वह स्वतः ही गिरने लगता है. और जहाँ सुख हो वहीं शांन्ति है, तब सारा जगत अपना ही विस्तार लगता है, रेत के कण से लेकर तारागण तक सभी कुछ. तब उस परमात्मा से मिलने की प्यास जगती है जिसने इतना सारा प्रेम भीतर भर दिया है, तब उससे दूरी सही नहीं जाती.

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - शुक्रवार - 13/09/2013 को
    आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः17 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra





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  2. प्रेमानंद ही तो परमानंद है जो भक्तियोग का उत्कर्ष है।

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  3. प्रेम मय जीवन सुखद होता,और मन को शांती मिलती है,,,

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  4. वीरू भाई व धीरेन्द्र जी स्वागत व आभार !

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