Thursday, March 12, 2015

समरसता हो भीतर बाहर

मई २००८ 
त्याग पर भोग हावी होता रहा तो पर्यावरण को संतुलित बनाये रखना बहुत कठिन होगा. अनावश्यक भोग भी न हो तथा अनावश्यक कर्म भी न हों, कहीं तो हमें विकास के लिए भी सीमा रेखा खींचनी होगी. जीने का सीधा सरल रास्ता हमें ढूँढ़ निकलना होगा, ऐसा रास्ता जो हमें कल्याण की ओर ले जाये. वह परम सुख ही हमारी मंजिल है. आज हम सब होने के बावजूद हम प्रेम से वंचित रह जाते हैं. प्रेम बाँटने में कंजूसी करते हैं और प्रेम स्वीकारने में भी झिझकते हैं. वास्तव में अहंकार कुछ है ही नहीं, प्रेम का अभाव ही अहंकार है और प्रेम का कभी अभाव होता ही नहीं. जैसे ही हम सजग होते हैं, दूरी मिट जाती है. वातावरण में एक समरसता भर जाती है. सारा जगत तब अपना लगता है, वस्तुओं को भी उपभोग करना छोड़कर उनका उपयोग करना सीखते हैं.  

2 comments:

  1. भोग के साथ त्याग भी होता तो कितना अच्छा होता ।
    सुन्दर - रचना । बधाई आपको ।

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  2. स्वागत व आभार शकुंतला जी..

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