Friday, July 15, 2016

टिक जाएँ निज स्वभाव में


सतयुग में कोई ध्यान नहीं करता क्योंकि कोई मानसिक रूप से बेचैन नहीं होता। कोई ईश्वर की पूजा नहीं करता क्योंकि किसी को कोई भी अभाव नहीं होता।  ज्ञान की साधना नहीं होती क्योंकि कोई अज्ञानी नहीं होता। कोई संत नहीं होता क्योंकि कोई असंत नहीं होता। आज समाज में जितना ज्ञान बढ़ रहा है उतना ही पाखंड  भी बढ़ रहा है. जितना लोग होशियार हो रहे हैं उतने ही चालाक भी हो रहे हैं. इसका अर्थ हुआ जब तक कोई द्व्न्द्वों के पार नहीं चला जाता तब तक उनसे मुक्त नहीं हो सकता। अच्छे बने रहने का आग्रह बुरे से पीछा छुड़ाने देता।  मन के पार आत्मा में स्थित रहकर ही  कोई दोनों के पार जा सकता है. स्वभाव में टिकना आ जाये तो ही सुख-दुःख दोनों से मुक्त हुआ जा सकता है.

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