१३.९.२०१६
शिशु अबोध होता है, उसे अपने पराये
का बोध नहीं होता, वह सभी को सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर लेता है. वयस्क होने पर उसे
भेद का बोध होता है, वह जगत को बाँट कर देखता है. राग-द्वेष जगाता है. उसका
निर्दोष स्वभाव खो जाता है. उसे यदि पुनः अपने सहज स्वरूप को पाना है तो
प्रतिक्रमण करना होगा. पुनः द्वैत की दुनिया के पार जाना होगा. उस ‘एक’ में गये
बिना मुक्ति नहीं. साधना होगा मन को ताकि भीतर उस 'अबोधता' को पा सके जो एक शिशु के रूप
में उसे सहज ही प्राप्त थी.
आत्मबोध की दिशा में ...सुंदर ज्ञान !!
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
Deleteकठिन साधना है शिशु हो लेना ।
ReplyDeleteकठिन तो नहीं अति सरल है, पर.. सरल होना भी कठिन है यदि हम न होना चाहें तो..शिशु होने का अर्थ है लचीला होना, अहंकार शून्य होना, अड़ने और स्वयं को सही सिद्ध करने की आदत से पार पाना..
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