३ अप्रैल २०१७
सभी धर्म यह स्वीकार करते हैं कि परमात्मा एक है.एक ही सत्ता से यह सारी सृष्टि अस्तित्त्व में आयी है. एक का विस्तार हुआ तो अनेक हुए, अब ध्यान में जाकर जब साधक जगत को मन में, मन को बुद्द्धि में, बुद्धि को स्वयं में ठहरा लेता है तो कुछ काल के पश्चात स्वयं अपने आपको परमात्मा में ही स्थित पाता है. एक से अनेक को पहचान के फिर अनेक से एक होना ही ध्यान है. उस क्षण किसी के साथ कोई भेद नहीं रह जाता, एक सहज विश्वास से अंतर पूरित हो जाता है और ध्यान से बाहर आने के बाद भी देर तक उस एकत्व की ख़ुशबू मन व देह में समोई रहती है. ध्यानी के लिए न कोई स्पर्धा शेष रहती है न ही कोई प्रतिद्वन्द्वी, सारा जगत जब अपना ही विस्तार ज्ञात होने लगे तो कैसी दौड़ और कैसा आग्रह. पहली बार तब सृष्टि एक नयी नवेली आभा बिखेरती हुई नजर आती है जिसका उद्देश्य ऊर्जा का सहज स्फुरण मात्र है. तन और मन जब प्राणवान होते हैं आनंद सहज ही प्रकट होता है.
कितनी सुन्दर बात कही आपने कि तन और मन जब प्राणवान होते हैं आनंद सहज ही प्रकट होता है.
ReplyDeleteध्यान की प्रक्रिया को परिभाषित किया है ... बहुत खूब ...
ReplyDeleteस्वागत व आभार राहुल जी व दिगम्बर जी !
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