२८ अप्रैल २०१७
शास्त्रों में दान की महिमा यूँ ही नहीं गाई गयी है. देने का भाव
जिसके मन में जगता है वह देवत्व की और कदम बढ़ाने लगता है. प्रकृति इतनी प्रिय
क्यों लगती है क्यों कि वह निरंतर लुटा रही है. नन्हे बच्चे सहज ही मुस्कान बांटते
रहते हैं. पालतू पशु निस्वार्थ प्रेम लुटाते रहते हैं. संत जो समाज को सिर्फ देते
ही देते हैं, सबके आदर के पात्र बन जाते हैं. तन,
मन धन किसी भी प्रकार से हमें इस
जगत में कुछ देने का भाव रखना है. हाथों से सेवा न भी कर सकें तो वाणी से
अथवा सद्विचारों के रूप में मानसिक सेवा भी कर सकते हैं. ऐसा करने से सबसे बड़ा
लाभ हमारा होता है, वस्तुओं के प्रति आसक्ति घटती
है, मन
खाली होता है और परमात्मा की कृपा का अनुभव सहज ही होने लगता है. जो खाली है, वही तो भरा जायेगा. हरेक
के पास जगत को देने के लिए बहुत कुछ है, बल्कि जो कुछ हमारे पास है वह जगत से ही मिला है तो उसी
की वस्तु उसी को लौटा देनी है और मुक्त भाव से इस जगत में विहार करना है.
आत्म चिंतन करने की जरूरत है सबको ... सुन्दर आलेख ...
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