Tuesday, April 25, 2017

बहता जाये मन नदिया सा

२६ अप्रैल २०१७ 
प्रकृति में हो रहे परिवर्तनों को हम आसानी से स्वीकार लेते हैं. उसके अनुसार स्वयं को ढाल लेते हैं. सर्दी और गर्मी से बचने के कितने ही साधन मानव ने खोज निकाले हैं. देह भी प्रकृति का ही अंश है और मन भी, देह भी सदा एक सी नहीं रहने वाली और मन तो पल-पल में बदलता है. जैसे स्वयं का मन बदलता है वैसे ही अन्यों का भी. किसी के प्रति कोई धारणा बनाकर उसी के अनुसार उससे व्यवहार करना वैसा ही है जैसे ग्रीष्म ऋतु के चले जाने पर भी सूती वस्त्र ही पहनने का आग्रह रखना. जैसे रुका हुआ पानी पीने लायक नहीं रहता वैसे ही रुका हुआ मन यानि की पूर्वाग्रहों से युक्त मन भी मैत्री,  करुणा व मुदिता के मार्ग पर नहीं चल सकता. जगत के प्राणियों के प्रति मैत्री का भाव हमें जड़ता से मुक्त रखता है. अंतर में जगी करुणा ह्रदय को कोमल बनाये रखती है और मुदिता तो वह आभूषण है जो हर हाल में हमें सौन्दर्य प्रदान करता है. 

No comments:

Post a Comment