७ अप्रैल २०१७
'विभिन्नता में एकता' का सूत्र जितना हमारे देश की मूल भावना को दर्शाता है उतना ही मानव और प्राणी जगत की आंतरिक एकता को भी. ऊपर-ऊपर से जितना भेद दिखाई देता है, भीतर-भीतर उतना ही साम्य छिपा है. जैसे एक वृक्ष है उसकी डालियाँ और तना निकट के वृक्ष से पृथक हैं पर धरती के भीतर दोनों की जड़ें आपस में किस तरह घुल-मिल जाती हैं कि कोई भेद नजर नहीं आता. साथ ही जो हवा और प्रकाश एक की पत्तियां ग्रहण करती हैं दूसरे की भी वही. उनमें एक तरह की समानता सदा ही है, मनुष्य -मनुष्य के मध्य भी सूक्ष्म स्तर पर देखा जाये तो हवा और प्रकाश के साथ-साथ विचार की तरंगे बिना रोक-टोक एकदूसरे में प्रवेश करती हैं. चेतना का गुण-धर्म एक जैसा ही है, चाहे वह किसी के भीतर ही क्यों न हो. ध्यान में जब इसका अनुभव साधक को हो जाता है एक आत्मीयता की भावना भीतर भर जाती है. एक अपनापन जो जगत के प्राणीमात्र के प्रति प्रकट होने लगता है.
मनुष्य -मनुष्य के मध्य भी सूक्ष्म स्तर पर देखा जाये तो हवा और प्रकाश के साथ-साथ विचार की तरंगे बिना रोक-टोक एकदूसरे में प्रवेश करती हैं.
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 1650वीं बुलेटिन - पंडित रवि शंकर में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार हर्षवर्धन जी !
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