५ अप्रैल २०१७
जीवन क्या है, इसकी समझ आते-आते ही आती है, कभी कभी तो मृत्यु के द्वार पर जाकर ही आती है, किन्तु उस समय उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता. नया शरीर पाकर फिर दुनिया की रंग रलियों में उलझ कर मन रह जाता है और जीवन से मुलाकात ही नहीं हो पाती. जिसे आमतौर पर हम जीवन कहते हैं, वह तो एक बंधी-बंधायी दिनचर्या है, क्रिया और प्रतिक्रिया का एक निरंतर चल रहा खेल है. मन एक तरह से सोचना सीख जाता है और तमाम उम्र उन्हीं दायरों में खुद को कैद कर सुरक्षित होने का भ्रम पाल लेता है. जीवन का गीत अनगाया ही रह जाता है. प्रकृति को निकट से देखें तो प्रतिपल जीवंतता का अनुभव होता है, शिशु और पशु-पक्षी भी एक तरह से जीवन के अत्यंत निकट होते हैं. इसका अर्थ यह नहीं है कि शिशु को विकसित नहीं होना है या मानव को पशु और प्रकृति में फिर से लौट जाना है. जीवन को एक विशाल दृष्टिकोण से देखना है, मानव की भूमिका व उसकी महत्ता को अनुभव करना है. जैसे प्रकृति, प्राणी व शिशु सहज ही तृप्त हैं, वैसे ही हर मनुष्य यदि भीतर एक तृप्ति का अनुभव करे तो विकास के नाम पर अनावश्यक दोहन नहीं होगा. विकास करके मानव सुख ही तो पाना चाहता है, पर दुःख के साधन बढाये चला जाता है, जीवन स्वयं मुस्कुराने और जगत में मुस्कुराहट बांटने के लिए है यह भाव जगते ही सारे अभाव नष्ट हो जाते हैं.
bahut sunder !!
ReplyDeleteस्वागत व आभार अनुपमा जी !
ReplyDeleteप्रकृति को निकट से देखें तो प्रतिपल जीवंतता का अनुभव होता है, शिशु और पशु-पक्षी भी एक तरह से जीवन के अत्यंत निकट होते हैं.
ReplyDeleteस्वागत व आभार राहुल जी..
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