Thursday, May 19, 2011

मन


                        जनवरी २०००
नाम-रूप ही जगत है और उसके भीतर जो छिपा है, वह है ब्रह्म ! उसे ढूंढने के लिये पहले मन को देखना होगा. जब मन चाह रहित होगा तभी उसका रूप स्पष्ट होगा, उस रूप का इस बाहरी नाम-रूप से कोई सम्बन्ध नहीं है.
                                                                    
इंसान के पास करने को कुछ न हो तो कैसा व्याकुल हो उठता है, अपना आप भी उसे बेमानी लगने लगता है. तभी श्रीकृष्ण भगवतगीता में कर्मयोगी बनने का उपदेश देते हैं. कर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है. प्रत्येक मनुष्य को कर्म करने का अधिकार मिलना ही चाहिए, अन्यथा उसके शरीर के साथ-साथ मन को भी जंग लग जायेगा.

मानव मन की कोई थाह नहीं, सोचने बैठो तो प्याज की परतों की तरह खुलता चला जाता है, कभी लगता है सब कुछ अपने वश में है और तभी अचानक यह अपना संतुलन खो बैठता है, डगमगाने लगता है. लेकिन विवेक की लगाम इसे गिरने से बचा भी लेती है... वास्तव में मन शक्तिशाली है और कभी विचलित भी न हो यदि भावनाएँ जो आधारहीन होती हैं उसे कमजोर न बनाएँ. मजबूती से विवेक रूपी लगाम को थामे हुए जो क्षुद्र भावनाओं के ज्वार को पार कर जाये, चाह को पनपने से पूर्व ही कुचल डाले, चाह जो बंधन में डालती है, तब वह निर्द्वन्द्व हो अपना मार्ग तलाश लेगा.

1 comment:

  1. पूर्णतया सच कहा आपने,

    सबसे बड़ा, दिशा दर्शाने वाला, "विवेक" ही है |

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