Monday, May 23, 2011

स्वाध्याय व तप

मार्च २००० 


स्वाध्याय के कई चरण हैं, केवल पठन ही नहीं मनन भी आवश्यक है, मनन के बाद जीवन में उसको व्यवहार की कसौटी पर कसना होगा फिर उसके द्वारा प्राप्त अनुभूति को जानना, यही ज्ञान है. हम जो भी कार्य करते हैं उसके बाद हुई सूक्ष्म अनुभूतियों को यदि समझा व जाना नहीं तो ज्ञान अधूरा है.


विपरीत वातावरण में रहकर भी मानसिक संतुलन बनाये रखना ही तप है, इस तरह संतुष्ट रहने से आत्मिक बल बढ़ता है, जितनी बाधाएं पार कर हम आगे बढ़ते हैं उन्हें यदि तप मानकर चलेंगे तो बाधाएं सुखकर प्रतीत होंगी, क्योंकि सुख-दुःख तो हमारे ही पूर्व कर्मों के परिणाम हैं. दुःख आये तो कर्म काट जाता है और सुख आये तो अभिमान ही बढ़ाता है, जब हृदय में कुछ चुभा हो और मन कसमसाता हो तो पहले बाहर न देखकर भीतर देखना होगा, क्योंकि मन की भावनाओं को ही मन प्रतिबिम्बित करता है, हृदय की विशालता जहाँ सहजता लाती है वहीं क्षुद्रता अशांति का कारण बनती है. टैगोर ने कहा था कि उनके हृदय की सहजता, सरलता व सहनशीलता ही उन्हें यहाँ तक लायी है.

1 comment:

  1. अनीता जी ,बहुत-बहुत धन्यवाद । तप की आपने बडी सार्थक व सटीक व्याख्या की है । सुख-दुःख सचमुच बहुत कुछ हमारी मनोवृत्ति पर आधारित होते हैं ।

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