मार्च २०००
मन यूँ तो शांत रहना चाहता है किन्तु उसे उद्वगिन बनाने के लिये पल भर की असजगता पर्याप्त है. वाणी का दोष सचेत न रहने पर ही घटता है, बिना किसी कारण के अभ्यास वश हुआ असत्य भाषण मन को दूषित कर जाता है, चाहे कितना ही छोटा या निर्दोष झूठ भी हो, हमारे मन की बेहोशी की खबर देता है. टीवी पर जागरण में सुधांशु जी महाराज बता रहे हैं कि “सबसे भयंकर हिंसा वाणी की हिंसा है. अपनी जिह्वा रूपी गाय को खूंटे से बांध कर रखना चाहिए क्योंकि यह दूसरों के हरे-भरे, मान रूपी बगीचे को तहस-नहस कर सकती है”. भाषा रुखी भी नहीं होनी चाहिए, नहीं तो मौन व्रत ही भला, इससे कितनी परेशानियों से हम बच सकते हैं.
मानव मन शरीर के सुख-दुःख से ऊपर उठना ही नहीं चाहता, इसीलिए मन से परे बुद्धि, बुद्धि से परे आत्मा को जानने की बात हमारे पूर्वजों ने की.
बहुत ही सुंदर आलेख
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
शब्दों पर लगाम होनी ही चाहिए !
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