मार्च २०००
मन को विकारों से मुक्त रखना ही धर्म है. धर्म मात्र बौद्धिक विलासता या तर्क-वितर्क का विषय नहीं है, धर्म तो अनुभव की चीज है, धारण करने से ही धर्म फलता है. ज्योंही मन में राग-द्वेष, अहंकार, मोह, लोभ या ईर्ष्या या अन्य कोई विकार जगता है त्यों ही कुदरत की ओर से फल मिलता है कि व्याकुलता और दुःख मन को घेर लेते हैं. विकारों से मुक्त मन सद्भावना, करुणा और मैत्री से भर जाता है, जिसका परिणाम होता है मन में शांति और आनंद. जो धर्म को जानता, मानता और उसका पालन करता है, वह मन को शुद्ध करने का प्रयास ही नहीं करेगा बल्कि सदा इसी चेष्टा में रहेगा. निर्मल मन का आचरण सदा दूसरों के लिये व अपने लिये सुख लाता है, अशुद्ध मन का आचरण सारे वातावरण को संतापित करता है, अपना व दूसरों का भी अमंगल लाता है. मन की चादर पर कोई दाग न लगे, वह कोरी की कोरी ही रहे इसके लिये हमें अंतर्मुखी होकर उस पर नजर रखनी होगी.
अनिताजी बिलकुल ठीक लिखा है आपने ! सभी दुखो की जड़ ..मन की चंचलता ही है ! अतः मन पर कण्ट्रोल जरुरी ही है !
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