Monday, May 6, 2013

बिखरा है चहुँ ओर वही तो


सितम्बर २००४ 
हमारा तन पांच तत्वों का बना हुआ है और हमारा मन प्रेम का, मन को हम देख नहीं सकते महसूस करते हैं, वैसे ही प्रेम को भी. जैसे विकारी मन दुःख देता है, शांत मन सुखकारी है, प्रेम भी यदि विकृत हो जाये अर्थात उसमे ईर्ष्या, क्रोध आदि के भाव समा जाएँ तो वह दुःख देता है. इन विकारों से रहित शुद्ध प्रेम हमें अपने भीतर ही खोजना होगा, तब वह सृष्टि के कण-कण में दिखाई देगा. वर्तमान के क्षणों में ही ऐसे प्रेम का अनुभव हो सकता है, क्योंकि वह बालवत निर्दोष होता है, उसे कुछ चाहिए नहीं, वह देना चाहता है. मृत्यु के क्षणों में भी प्रेम के कारण ही प्रेमी अनंत में समा  जाता है, फिर एक नया शरीर धारण करता है तो जगत से प्रेम के कारण ही.

4 comments:

  1. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार ७/५ १३ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका वहां स्वागत है ।

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  2. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति,आभार.

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  3. राजेश जी व राजेन्द्र जी, स्वागत व बहुत बहुत आभार!

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