सितम्बर २००४
साधना का पथ अत्यंत दुष्कर है
और उतना ही सरल भी. जिनका हृदय सरल है, जहाँ प्रेम है, ऐसे हृदय के लिए साधना का
पथ फूलों से भरा है, पर राग-द्वेष जहाँ हों, अभाव खटकता हो, उसके लिए साधना का पथ
कठोर हो जाता है. कृपा का अनुभव भी उसे नहीं हो पाता, क्योंकि कृपा का बीज तो
श्रद्धा की भूमि में ही पनपता है, अनुर्वरक भूमि में नहीं. जहाँ हृदय में ईश्वर
प्राप्ति की प्यास ही नहीं जगी वहाँ उसके प्रेम रूपी जल की बरसात हो या नहीं कोई
फर्क नहीं पड़ता, जब मन में एक मात्र चाह उसी की हो तभी भीतर प्रकाश जगता है. उस
चाह की पूर्ति के लिए बाहरी साधनों की आवश्यकता गौण है, वहाँ मन ही प्रमुख है, मन को
ही प्रेम जल में नहला कर, भावनाओं के पुष्प, श्रद्धा का दीपक, आस्था का तिलक लगा
कर शांति का मौन जप करना होता है. यह आंतरिक पूजा हमें उसकी निकटता का अनुभव कराती
है, साधक तब धीरे-धीरे आगे बढता हुआ एक दिन पूर्ण समर्पण कर पाता है.
जब तक ईश्वर के प्रति मन में प्रेम और लगाव नहीं, तब तक सभी बाह्य साधन व्यर्थ हैं...बहुत सुन्दर प्रस्तुति..आभार
ReplyDeleteजब मन में एक मात्र चाह उसी की हो तभी भीतर प्रकाश जगता है.
ReplyDeleteआंतरिक पूजा हमें उसकी निकटता का अनुभव कराती है, साधक तब धीरे-धीरे आगे बढता हुआ एक दिन पूर्ण समर्पण कर पाता है.
ReplyDeleteजीवन का सार
कैलाश जी, राहुल जी, व रमाकांत जी आप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDelete