सितम्बर २००४
इस सृष्टि का आधार प्रेम ही है, प्रभु की कृपा से जब किसी के
पुण्य जग जाते हैं, तो इस प्रेम की
प्राप्ति होती है, यह एक ऐसा धन है जिसे पाकर संसार के सभी धन फीके लगते
हैं, जो घटता नहीं सदा बढ़ता रहता है. जन्मों-जन्मों से संसार को चाहता मन उसके
चरणों में टिकना चाहता है, अब उसे अपना घर मिल गया है. जगत तो क्रीड़ास्थली है जहाँ
कुछ देर अपना कर्तव्य निभाना है, और फिर भीतर लौट आना है. जगत में उसका व्यवहार अब
प्रेम से संचालित होता है न कि लोभ अथवा स्वार्थ से. परमात्मा ही इस प्रेम का स्रोत
है. हम जो इसकी झलक पाकर ही संतुष्ट हो जाते हैं, उनकी क्या हालत होगी जो इसके
स्रोत तक पहुंच चुके हैं.
आपकी यह रचना कल मंगलवार (21 -05-2013) को ब्लॉग प्रसारण अंक - २ पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
ReplyDeleteनारायणी नशा चढ़ता है प्रभु प्रेम से गूंगे के गुड़ सा अ -व्याखेय।
ReplyDeleteशुभम अनीता जी
ReplyDeleteबहुत सुंदर
मेरे ब्लॉग में अपने को सम्मलित कर अनुग्रहित करें
गुज़ारिश
शुक्रिया जी
राजेश जी, लक्ष्मण जी स्वागत व आभार !
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