१६ जुलाई २०१८
मन के भीतर चल रहे द्वंद्व को हम जितना-जितना मिटाने का
प्रयत्न करते हैं, उतना ही उसे पोषित करते चले जाते हैं. हमारा ध्यान जहाँ भी
होगा, ऊर्जा उधर ही बहेगी और उस स्थिति को समाप्त करने के बजाय उसे और भी बढ़ाएगी.
इससे तो बेहतर होता कि हम प्रार्थना में बैठ जाते, अथवा ध्यान स्वयं की तरफ ले
जाते, निज स्वरूप में ही शांति का अनुभव किया जा सकता है. मन की दुविधा को मन भला
कैसे शांत कर सकता है, कोई अपनी ही बनाई हुई मूर्ति को जिस तरह नहीं तोड़ना चाहता,
वैसे ही मन स्वयं के बनाये हुए मनोराज्य को ध्वंस नहीं कर सकता. उसे तो बोध के
द्वारा ही समझाया जा सकता है. भीतर के मौन में टिक कर ही उस शांत अवस्था का अनुभव
किया जा सकता है जहाँ कोई द्वंद्व नहीं है. परमात्मा से प्रार्थना, उसकी स्तुति,
और उपासना के द्वारा हम इस निर्मल बोध को अनुभव कर सकते हैं.
No comments:
Post a Comment