६ जुलाई २०१८
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः! इस छोटे से सूत्र में कितनी गहरी सच्चाई छुपी है. बादल जल
का ग्रहण करते हैं फिर त्याग देते हैं, धरती बीजों को धारण करती है फिर हजार गुना
करके लौटा देती है. सूर्य तो लाखों वर्षों से प्रकाश का दान कर ही रहा है. पुष्प
बाँट रहे हैं, मधु लेकर जाती हुई मधुमक्खी पुनः उसे लौटा देती है. प्रकृति में सभी
त्याग भाव से ही भोग कर रहे हैं. पहले मानव भी इसी रीति को अपनाता था, अन्न दान,
वस्त्र दान, ज्ञान दान तथा अन्य प्रकार के दान जीवन का एक सहज अंग थे. पहली रोटी गाय
की, दूसरी कुते की, तीसरी चिड़िया की और फिर अपने लिए. जब देने का भाव भीतर जगता है
देवत्व भी साथ-साथ ही पल्लवित होता है, आत्मा का सहज स्वभाव है प्रसन्नता को
बांटना, बांटने से ही वह बढ़ती है. अहंकार सब कुछ खुद के लिए संभाल कर रखना चाहता
है, इसलिए दुखी होता है. किसी संत कवि ने कितना सही कहा है, ‘जो जल बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम, दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम’.
https://bulletinofblog.blogspot.com/2018/07/blog-post_7.html
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार रश्मि प्रभा जी !
Deleteबहुत सुंदर विचार आदरणीया अनिता जी
ReplyDeleteस्वागत व आभार मीना जी !
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