३० जुलाई २०१८
साधना का लक्ष्य है अहंकार का विसर्जन, अर्थात इस अनंत ब्रह्मांड में स्वयं को एक
इकाई न मानकर संम्पूर्ण का अंश मानना. जब तक ‘मैं’ बचा हुआ है, न ज्ञान है, न प्रेम, न
भक्ति और न ही आनंद. भीतर जब इस ज्ञान की किरण उतरती है तो ज्ञान ही रह जाता है,
ज्ञानी खो जाता है ! जगत के साथ जब भीतर एक्य का अनुभव होता है तभी परमात्मा का आनंद बरसता है, आनंद का अनुभव ही शेष
रह जाता है, अनुभव करने वाला खो जाता है. भीतर जब प्रेम की रसधार बहती है तो प्रेम
ही रह जाता है, प्रेमी खो जाता है ! इसी तरह परमात्मा से जब मिलन होता है तो भक्त
खो जाता है, केवल परमात्मा ही रह जाता है.
आत्मा, ईश्वर, भगवान, देवी-देवता, अशुर, ग्रह-नक्षत्र के बाद मिलता है मनुष्य योनि में होता है जन्म जीवका जी 🙏 दो तो नहीं है पर क्योंकि अनुभव के स्तर अलग अलग होने से अंनत जीवों की अनुभूति होती है जी🙏
ReplyDeleteस्वागत व आभार अशोक जी !
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