२० मार्च २०१७
हमने कितनी बार ये शब्द सुने हैं - 'कोई जीने के लिए आहार लेता है कोई खाने के लिए ही जीता है'. इसी तरह कोई कहता है आत्मा देह के लिए है और कोई कह सकता है देह आत्मा के लिए है. यदि हम यह मानते हैं कि भोजन देह धारण के लिए है तो हमारा भोजन संतुलित होगा, देह को आलस्य से नहीं भरेगा, स्वस्थ रखने में सहायक होगा. यदि हम भोजन के लिए ही जीते हैं तो सारा ध्यान भोजन के स्वाद पर होगा, आवश्यकता से अधिक भी खाया जा सकता है. इसी तरह यदि हम यह मानते हैं देह आत्मा के लिए है तो हम आत्मा को पुष्ट करने वाले सात्विकआहार ही देह को देंगे, आहार में पाँचों इन्द्रियों से ग्रहण करने वाले सभी विषयों को लिया जा सकता है. अर्थात देखना, सुनना, खाना, सूँघना, स्पर्श करना सभी आत्मा का हित करने वाले होंगे. दूसरी ओर जब आत्मा को देह के लिए मानते हैं तो मन व इन्द्रियों को तुष्ट करना ही एकमात्र ध्येय रह जाता है. आत्मा की सारी ऊर्जा देह को सुखी करने में ही लगती रहती है और हम आत्मा के सहज गुणों को अनुभव ही नहीं कर पाते,
मेरा मानना है कि हमें अपने शरीर के माध्यम से आत्मा को सिर्फ शिद्दत से महसूस करना है. आत्मा का सहज गुण तो देवत्व में हैं. सेवाभाव व उच्च चरित्र का सतत विकास आत्मा की मंजिल है. हम जितना चाहे, इसे आगे ले जा सकते हैं. शरीर को जैसा ईंधन मिलेगा, आत्मा उसी हिसाब से अपने गंतव्य की ओर अग्रसर होगी.
ReplyDeleteआपने सही कहा है, जैसा अन्न वैसा मन, स्वागत व आभार राहुल जी !
Deleteआपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति विश्व गौरैया दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार हर्षवर्धन जी !
Deleteशरीर जीवित है तो आत्मा का भी एहसास होता है ... शरीर रहित जीवन की कल्पना शायद नहीं कर पता इंसान ... शायद दोनों का विकास पूरक है दोनों के लिए ...
ReplyDeleteसही है, देह व आत्मा दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, पर सवाल यह है कि हम कौन हैं, देह या आत्मा, अथवा दोनों का मेल, यदि कोई स्वयं को देह मानता है, तो देह मृण्मय है, उसे सदा मृत्यु का भय लगा रहेगा. यदि आत्मा जानता है तो उसने एक आधार पा लिया है, यदि दोनों का मेल जानता है तो एक न एक दिन यह संयोग टूटने ही वाला है, स्वयं को आत्मा जानना और फिर देह को अपने विकास के लिए उसका साधन मानना यही साधना का लक्ष्य है.
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