२३ मार्च २०१७
सृष्टि में जैसे दिन-रात का चक्र अनवरत चल रहा है, अर्थात श्रम और विश्राम के लिए नियत समय दिया गया है, वैसे ही साधक के लिए प्रवृत्ति और निवृत्ति का विधान किया गया है. ध्यान का समय ऐसा हो जब दोनों तरह की इन्द्रियां अर्थात कर्मेन्द्रियाँ व ज्ञानेन्द्रियाँ बाहरी विषयों से स्वयं को निवृत्त कर लें, मन में कोई इच्छा न रहे, बुद्धि हर जिज्ञासा को परे रख दे, आत्मा स्वयं में ठहर जाए. ध्यान में मिले पूर्ण विश्राम के पश्चात जब कार्य में प्रवृत्त होने का समय आये तो ऊर्जा स्वतः ही प्रस्फुटित होगी. कर्म तब फल की इच्छा के लिए नहीं होगा बल्कि जो ऊर्जा ध्यान में भीतर जगी है, उसके सहज प्रकटीकरण के लिए होगा. इसीलिए हमारे शास्त्रों में सन्धया करने के विधान का विवरण मिलता है, दिन में कम से कम दो बार साधक शान्त होकर बाहरी जगत से निवृत्त हो जाये, तो जिस तरह दिन-रात सहज ही बदलते हैं, कर्म और विश्राम सहज ही घटेंगे.
Bahut sahi kaha aapne .....
ReplyDeleteस्वागत व आभार राहुल जी !
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