२४ मई २०१७
स्व को एक क्षण के लिए
भी भुलाना साधक के लिए उचित नहीं है. स्व का अर्थ है अस्तित्त्व के साथ एक होकर
रहना, सहज होकर रहना और सजग होकर निरंतर कर्म में रहना. शरीर की हर कोशिका चेतना
से ढकी है, यदि मन में नकारात्मक भावनाएं रहेंगी तो चेतना धूमिल हो जाएगी, चेतना
जल की तरह है वह जिस पात्र में रखी जाती है उसका ही आकार ले लेती है. मन में हल्का
सा भी तनाव हो तो चेतना पर आवरण छा जाता है और देह पर उसका असर होने लगता है. स्व
की साधना में लगा हुआ साधक अपने जीवन को सजग होकर देखता है, इस देखने में ही मन
शुद्ध होने लगता है, स्व मुखर हो जाता है.
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 25-05-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2636 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत बहुत आभार दिलबाग जी !
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