१५ जून २०१८
एक व्यक्ति एक संत के पास गया और मुक्ति का मार्ग पूछा. संत
ने कहा, सजगता में ही मुक्ति है. क्योंकि बंधन सदा ही असावधानी में बंधता है.
असावधानी वश जो भी कार्य देह द्वारा होते हैं, उनके पीछे एक खोया हुआ मन होता है,
मन के पीछे सुप्त बुद्धि होती है और होता है अहंकार. अहंकार कभी अपने को गलत नहीं
मान सकता, भले ही वह जान लेता है कि बुद्धि ने उचित निर्णय नहीं लिया, मन में सही
विचार नहीं आया और कृत्य सही नहीं है, पर वह उसे किसी न किसी तरह सही सिद्ध करना
चाहता है. इस प्रक्रिया में वह बंधन में बंध जाता है. अब यही अहंकार पीड़ित होकर
मुक्ति के उपाय खोजता है. जब तक मन वर्तमान में नहीं होगा, बुद्धि सतर्क नहीं
होगी, कर्म सही नहीं हो सकते. वर्तमान के क्षण में अहंकार को टिकने के लिए कोई जगह
नहीं है, सजग बुद्धि को भी किसी की अनुशंसा नहीं चाहिए, यानि अहंकार की दाल वहाँ
भी नहीं गलती, कर्म जब शुद्ध होते हैं तो उनसे किसी फल की आशा नहीं रहती, क्योंकि
कर्म करते समय ही सुख का अनुभव होता है. कर्तापन के मिटते ही मुक्ति का अनुभव होता
है.
No comments:
Post a Comment