९ जून २०१८
जीवन हमारे चारों और बिखरा है, हमारे भीतर है, रग-रग में बह रहा है, फिर भी हमारी
उससे मुलाकात नहीं होती. जीवन प्रतिपल बरस रहा है, लेकिन हमारे अंतर में कोई रसधार
बहती नजर नहीं आती. ध्यान करने बैठें तो विचारों की एक भीड़ चली आती है. शब्दों का
ऐसा जाल हमें भीतर जकड़ लेता है कि कहीं आत्मा के दर्शन नहीं होते. संत कहते हैं,
यह जगत पूर्ण से उपजा है, अपने आप में पूर्ण है और इसका हर अंश पूर्ण है. हमें
संदेह भी नहीं होता कि अपूर्णता का दर्शन केवल मन की कल्पना ही तो नहीं.
नकारात्मकता पर हमें पूरा विश्वास है और सकारात्मकता पर संदेह. जीवन विधेय का प्रतीक
है और उसी को मिलता है जो पूरे स्वीकार भाव में टिक जाता है. जीवन में जिस क्षण भी
हमारे भीतर द्वंद्व समाप्त हो जाता है, हम उसमें स्थित हो जाते हैं,
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