१३ जून २०१८
शिशु जब जन्म लेता है, उस वक्त उसका कोई धर्म, जाति या नाम नहीं
होता, समाज और परिवार ही उसे ये उपाधियाँ देते हैं. वह किसी का पुत्र कहाता है,
किसी का भाई अथवा बहन, बाद में वह स्वयं किसी का माता या पिता बनता है, ये सब
उपाधियाँ भी जगत के द्वारा प्रदान की गयी हैं. इस तरह एक ही आत्मा कितने ही नाम
ग्रहण कर लेती है. इसी तरह एक ही परमात्मा जीव और प्रकृति की उपाधि ग्रहण करके
इतने नाम और रूप धारण किये हुए है. ध्यान में ही हम अपने आत्म स्वरूप को जान सकते
हैं, समाधि में जाने पर कोई परमात्मा के चिन्मात्र स्वरूप का भी अनुभव कर सकता है.
जब तक शिशु को जगत का बोध नहीं होता, अहम भावना का जन्म नहीं हुआ होता, वह कितना
सहज रहता है, ध्यान और समाधि को प्राप्त मन भी जगत की सारी हलचल के मध्य पूर्ण रूप
से सहजता का जीवन जी सकता है. अपने कर्त्तव्य कर्मों का पालन करते हुए, अपने चारों
तरफ प्रेम और शांति का वातावरण बना सकता है.
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