७ अगस्त २०१८
एक तरफ पदार्थ है और दूसरी तरफ ऊर्जा यानि चेतना, दोनों के
संयोग से एक तीसरा तत्व उत्पन्न हुआ मन, जो ऐसे ही था जैसे प्रकाश के सामने कोई
वस्तु आ जाये तो उसकी छाया बन जाती हो. छाया जो प्रकाश के अनुसार बदलती रहती है,
जो कभी होती है कभी नहीं होती, इसीलिए मन को चन्द्रमा के समान माना गया है, जो
घटता बढ़ता रहता है और कभी-कभी समाप्त ही हो जाता है. यदि चन्द्रमा पर सूर्य का
प्रकाश न पड़े और वह धरती की परिक्रमा न करे तो उसके अस्तित्त्व का सामान्य मानव को
पता भी न चले. भौतिकी नियम के अनुसार पदार्थ और ऊर्जा दोनों को न ही उत्पन्न किया
जा सकता है, न ही नष्ट किया जा सकता है. हम स्वयं को यदि शुद्ध पदार्थ मानते हैं,
यानि अपना केवल भौतिक अस्तित्त्व मानते हैं, तो भी हमारा विनाश सम्भव नहीं है,
केवल परिवर्तन होता है. पंच तत्वों से बना बच्चे का तन एक दिन वृद्ध हो जाता है और
पुनः सारे तत्व अपने-अपने स्रोत में मिल जाते हैं. यदि हम स्वयं को शुद्ध चेतना
मानते हैं तब भी हमारा विनाश सम्भव नहीं है. स्वयं को मन मानने से ही सारी उलझन का
आरम्भ होता है. पहली बात तो यह है, मन छाया मात्र है, अर्थात उसका कोई अस्तित्त्व
नहीं है, वह प्रतीत भर होता है. पदार्थ परिवर्तन शील है, उसकी छाया होने के कारण
मन भी प्रतिपल बदल रहा है, इसीलिए कोई भी अपने आप में टिका हुआ नहीं लगता, केन्द्रित
नहीं है. मन माया के पार जाकर ही कोई स्वयं में स्थित हो सकता है.
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