१३ अगस्त २०१८
बूंद जैसे हम हैं और
सागर जैसा भगवान, उससे मिलने जायेंगे तो हमें स्वयं को खोना ही पड़ेगा. बीज जैसे हम
हैं और विशाल वटवृक्ष जैसा परमात्मा है, हम मिटेंगे तभी वह प्रकटेगा. मल, विक्षेप,
आवरण से ढके हैं हम और वह अनंत खुले आकाश जैसा सब और व्याप्त है. हम पंचकोश में
छिपे हैं. इच्छाओं और कामनाओं के दुर्ग में कैद हैं, मन है कि पीपल के पत्ते सा
पल-पल डोला करता है, बात त्यागने लायक हो फिर भी उसे मन से लगाये रहते हैं. अहंकार
ही दुःख का आवरण डाले रहता है पर उसे भी नहीं छोड़ते, जानते हुए भी उस मार्ग का
त्याग नहीं कर पाते जिस पर चल कर सदा ही दुःख पाया है. जिसकी मंजिल अनंत आकाश है
वह स्वयं को पिंजरे में कैद मानता है, यही तो माया है. सद्गुरू कहते हैं, जिस घड़ी
भीतर मिटने से कोई भय नहीं रहेगा, अहंकार को विसर्जित करन सहज हो जायेगा, उसी पल सत्य
में जागरण होगा.
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