४ जनवरी २०१७
हम सब सफल होना चाहते हैं. सबसे आगे भी रहना चाहते हैं. मानव स्वभाव में ही यह गुंथा हुआ है कि वह थोड़े से संतुष्ट नहीं होता. सब कुछ पाकर भी उसे ऐसा लगता है कि कुछ अधूरा सा है. ऐसे में क्या जरूरी नहीं है कि हम थोड़ी देर थमकर गहराई से इसका कारण सोचें. जब हमसे काफी आगे वाला भी संतुष्ट नहीं है तो वहाँ पहुच कर क्या हम संतुष्ट हो जायेंगे. इसका उत्तर भीतर से ही मिलेगा. संत कहते हैं हमारी तलाश तब तक जारी रहेगी जब तक हम उस पद को नहीं पा लेते जहाँ पूर्ण संतुष्टि है. वह पद अनंत है जिस पर हर कोई हर वक्त बैठ सकता है, उस की अभीप्सा हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. किन्तु हम उस मार्ग को नहीं जानते जिससे वहाँ जाया जा सकता है. ध्यान ही वह मार्ग है, इस मार्ग पर चलने वाला यात्री किसी से आगे जाना नहीं चाहता वह अपनी यात्रा भीतर ही भीतर करता है और उस तक पहुँच जाता है.
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