भगवद् गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन को अभ्यास और वैराग्य का उपदेश
देते हैं. अभ्यास समर्पण का और वैराग्य सांसारिक सुखों से. हमारा समर्पण बार-बार
खंडित हो जाता है, और जगत से वैराग्य भी नहीं सधता. जरा सी प्रतिकूलता आते ही भीतर
संदेह भर जाता है, अल्प सुख के लिए हम जगत के पीछे निकल पड़ते हैं. गुरु कहते हैं,
हजार बार भी टूटे फिर भी समर्पण किये बिना अंतर की शांति को अनुभव नहीं किया जा
सकता. इसी तरह एक दिन साधक सुख के पीछे जाना छोड़ देता है क्योंकि उसका सुख बार-बार
दुःख में बदल गया है. वह असत्य की राह भी त्यागता है क्योंकि उस पथ पर कांटे ही
कांटे मिले. अनुभवों से सीखकर ही हम आगे बढ़ते हैं. साधना का पथ एक अंतहीन यात्रा
पर हमें ले जाता है. परमात्मा अनंत है, हमारे सारे प्रयास अल्प हैं, किंतु संतों
का जीवन देखकर भीतर भरोसा जगता है, वे भी इसी तरह पग-पग चल कर ही इस अनंत शांति और
आनंद के भागी हुए हैं.
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