मानव जीवन सत्य से मिलने का एक अवसर है. शास्त्रों में सत्य की परिभाषा दी गयी है,
जो सदा से है, सदा रहेगा, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता पर जो सारे परिवर्तनों का
आधार है. यदि हम अपने जीवन पर दृष्टि डालें तो शैशवावस्था नहीं रही, किशोरावस्था
भी चली गयी, युवावस्था और प्रौढ़ावस्था भी टिकने वाली नहीं हैं. एक दिन यह तन भी
नहीं रहेगा, अर्थात देह की अवस्थाएं सत्य नहीं हैं. जो इन सभी अवस्थाओं को देखने
वाला था, वह सदा रहेगा. इसी तरह उदासी आई और चली गयी, ख़ुशी के पल आये और चले गये.
हम सबका अनुभव है कि सुख-दुःख ज्यादा देर टिकते नहीं हैं, इनका आधार मन भी सदा अपने
रंग-ढंग बदलता रहता है. यदि कोई इस मन की मानकर चलेगा तो सत्य से दूर ही रहेगा.
शास्त्र और गुरूजन जो मार्ग दिखाते हैं, उस साधना के मार्ग पर चलकर ही हम मन के
पार जाकर उसके आधार की झलक पाते हैं. यह सत्य से हमारा प्रथम मिलन होता है. जब इस
ज्ञान का जीवन में प्रयोग आरम्भ हो जाता है, तब इसमें हमारी स्थिति दृढ़ होने लगती
है और जीवन से असत्य का लोप होने लगता है.
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (28 -07-2019) को "वाह रे पागलपन " (चर्चा अंक- 3410) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
....
अनीता सैनी
बहुत बहुत आभार !
ReplyDeleteजीवन में सत्य के महत्व की सटीक व्याख्या 🙏
ReplyDeleteजी बहुत सुंदर प्रस्तुति।
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