स्थूल देह हमारा घर है. प्राणमय कोष ऊर्जा है. मनोमय कोष संचार का साधन है, विज्ञान
मय कोष कर्ताभाव को उत्पन्न करता है.
आनन्दमय कोष में स्थित रहने पर सहज ही सुख का अनुभव होता है, किंतु यह भी अज्ञान जनित सुख है. देह भाव से मुक्त हुए
तो, जरा-रोग का भय नहीं रहता. प्राणमय कोष से मुक्त हुए तो भूख-प्यास का भय नहीं
रहता. विज्ञानमय कोष से मुक्त हुआ साधक कर्त्ता भाव से मुक्त हो जाता है. हम इनके
माध्यम से प्रकट हो रहे हैं, इन्हें प्रकाशित कर रहे हैं, न कि हम ये हैं. मन,
बुद्धि आदि को 'स्वयं' मानना ही माया है. जैसे पानी समुद्र या लहरों का साक्षी
नहीं है, समुद्र व लहरें उसकी उपाधियाँ हैं, वह अपने आप में निसंग है, वैसे ही आत्मा अपने आप में पूर्ण है. जैसे कोई
पक्षी दर्पण के सामने खड़े होकर प्रतिबिम्ब से प्रभावित हो जाता है, वैसे ही हम मन,
बुद्धि आदि से प्रभावित हो जाते हैं. जितना-जितना हम विश्राम में रहते हैं,
उतना-उतना अपने स्वरूप के निकट रहते हैं.
बार बार मनन करने योग्य ।
ReplyDeleteसही कहा है आपने, स्वागत व आभार दीदी !
Delete