इस वक्त जो कुछ भी हमारे पास है, वह जरूरत से ज्यादा है, यदि यह ख्याल मन में
आता है तो भीतर संतोष जगता है. क्या यह सही नहीं है कि कभी जिन बातों की हमने
कामना की थी, उनमें से ज्यादातर पूरी हो गयी हैं. मन में कृतज्ञता की भावना लाते
ही जैसे कुछ पिघलने लगता है और सारा भारीपन यदि कोई रहा हो तो गल जाता है. जब हम अपने
चारों ओर नजर दौड़ाते हैं तो जल धाराओं को बहाता हुआ विशाल आसमान जैसे यह संदेश
देता नजर आता है कि भीतर कुछ भी बचाकर न रखें, सब यहीं से मिला है और सब यहीं
छोड़कर जाना है, तो क्यों न सहज ही अंतर का वह द्वार खोल दें जिसके पीछे परम का
अथाह खजाना छिपा है. हरीतिमा युक्त धरती भी अपने भीतर से जैसे सब कुछ उलीच देना
चाहती है. जीवन प्रतिपल दे रहा है और हमें उसे अपने द्वारा बहने का मार्ग देना है.
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी !
ReplyDelete