हमें सत्य को पाना नहीं है, उसे अपने माध्यम से प्रकट होने का अवसर देना है.
परमात्मा को देखना नहीं है उसके गुणों को स्वयं के भीतर पनपने का अवसर देना है. आदिम
युग में मानव ने जब परमात्मा की ओर पहली-पहली बार निहारा होगा तो उस अदृश्य शक्ति
से सहायता की गुहार लगाई होगी, किंतु अब इतने बुद्धों के अवतरण के बाद परमात्मा के
प्रति उसका दृष्टिकोण परिपक्व हो गया है. वह परमात्मा को आदर्श मानकर स्वयं को
उसके लिए उपलब्ध पात्र बनाना चाहता है, वह जान गया है परमात्मा मानवीय सम्भावनाओं
की अंतिम परिणति है. कभी कोई कृष्ण कोई राम, मानव होकर भी उस ऊँचाई को प्राप्त कर
सकता है तो इसका अर्थ है हर मानव में यह शक्ति निहित है. उस शक्ति को अपने भीतर
जगाना और उसे देह, मन, बुद्धि के माध्यम से व्यक्त होने का अवसर देना यही
आध्यात्मिकता है.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (09-07-2019) को "जुमले और जमात" (चर्चा अंक- 3391) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार !
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