Wednesday, May 15, 2013

राधे राधे मन बोले


  सितम्बर २००४ 
  गोपियों ने कृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण किया था पर राधा ने स्वयं का विसर्जन कर दिया है. राधा के प्रेम में चीत्कार नहीं है वह स्वयं को मिटा कर कृष्णरूप ही हो गयी है. कृष्ण से वह जब पृथक रही ही नहीं तो कैसा विरह और कैसी पीड़ा. विसर्जन करना बहुत कठिन है, अपने अहम् का विसर्जन, शक्ति, समय, सेवा का विसर्जन, प्रिय के साथ एकाकार हो जाना, द्वैत को मिटाकर एक्य स्थापित करना प्रेम की पराकाष्ठा है. भक्त भगवान को स्वयं से अलग मानकर उसकी पूजा करता है, अपनी निजता बचाए रखता है पर ज्ञानी भक्त स्वयं को मिटा देता है, उसके लिए दो नहीं रहते वह इतनी भी दूरी नहीं चाहता. किन्तु सेवा की यह भावना किसी बिरले को ही प्राप्त होती है. जन्मों के संस्कार हमें अहंकार से मुक्त होने नहीं देते, अहंकार इतना सूक्ष्म है कि कब आकर खड़ा हो जाता है पता ही नहीं चलता. कृपा के अधिकारी बनने पर ही इससे मुक्त हुआ जा सकता है. सजगता ही कृपा पाने की शर्त है.

6 comments:

  1. राधा के प्रेम में चीत्कार नहीं है वह स्वयं को मिटा कर कृष्णरूप ही हो गयी है. कृष्ण से वह जब पृथक रही ही नहीं तो कैसा विरह और कैसी पीड़ा. विसर्जन करना बहुत कठिन है,

    यही भाव राधा की कृष्ण के प्रति आसक्ति का है आपने इसे गरिमा दी
    राधे राधे

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  2. कृष्ण से वह जब पृथक रही ही नहीं तो कैसा विरह और कैसी पीड़ा. विसर्जन करना बहुत कठिन है, अपने अहम् का विसर्जन, शक्ति, समय, सेवा का विसर्जन, प्रिय के साथ एकाकार हो जाना,

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  3. द्वैत को मिटाकर एक्य स्थापित करना प्रेम की पराकाष्ठा है.
    ....बिल्कुल सच कहा है...आभार

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  4. रमाकांत राहुल जी, मधु जी व कैलाश जी आप सभी का स्वागत व बहुत बहुत आभार !

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  5. वाह ... कितनी सूक्ष्मता से अंतर स्पष्ट किया है ... कृष्ण से एक हो जाना ही अंत है ...

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