जनवरी २००३
हमारे भीतर आत्मा का सूरज चमक ही रहा है, उसका प्रकाश बाहर आये यही साधना है. आत्मनिंदा साधना के लिये ठीक नहीं, आत्म पूजा ही हमारी रीत होनी चाहिए. अंतर शुद्धि और बाह्य शुद्धि इसके लिये पहला कदम है. संतोष, सरलता तथा प्रेम को धारण करते हुए सदा आनंदित रहना दूसरा.. क्रोध तभी आता है जब हम ज्ञान के बल से विहीन होते हैं, अविद्या और अज्ञान ही हमें जन्मों से दुःख व पीड़ा दे रहे हैं. यदि कभी क्रोध आ जाये तो “निर्बल के बल राम” को याद रखना होगा. पूर्ण समर्पण हो अस्तित्त्व के प्रति अथवा सदगुरु की शरणागति. मन को खाली करना है ताकि वहाँ प्रकाश भर सके. ऐसा प्रकाश जो प्रेम मय है, आनंद मय है शांति मय है...
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आपका स्वागत है |आशा है यात्रा बढ़िया रही होगी |आपको पढ़कर मन शांत शांत सा हो जाता है .....!!एक मार्गदर्शन मिलता रहता है |बहुत सकारात्मक सोच आभार ...अनीता जी ...!!
ReplyDeleteअनुपमा जी, यात्रा बहुत अच्छी रही, आप सभी की स्मृति बराबर बनी रही जब भी कुछ लिखती थी लगता था कब यह पोस्ट पर जायेगा. आभार!
Deleteमन को खाली करना है ताकि वहाँ प्रकाश भर सके. ऐसा प्रकाश जो प्रेम मय है, आनंद मय है शांति मय है...
ReplyDeleteबहुत सच कहा है...जब तक मन विकारों से खाली नहीं होगा, उसमें सद्विचार कैसे समायेंगे...आभार
http://aadhyatmikyatra.blogspot.in/
कैलाश जी, आपका स्वागत व आभार !
Deleteसुन्दर विचार।
ReplyDeleteबाली जी, आपका आभार !
Deleteसारगर्भित विचार कनिका .
ReplyDeleteपूर्ण समर्पण हो अस्तित्त्व के प्रति अथवा सदगुरु की शरणागति. मन को खाली करना है ताकि वहाँ प्रकाश भर सके. ऐसा प्रकाश जो प्रेम मय है, आनंद मय है शांति मय है...
ReplyDeleteparam satya
बहुत बहुत आभार व स्वागत !
Deleteउत्तम विचार!
ReplyDeleteआभार !
Deleteसचमुच !!!
ReplyDeletekalamdaan