फरवरी २००३
प्रेम हमें मानव से महामानव बना सकने की सामर्थ्य रखता है, प्रेम जो देना जानता है मात्र लेना नहीं. ईश्वर से अनन्य प्रेम हो तो हृदय में कृपणता नहीं रहती, रोग, शोक, मोह तो ऐसे छूट जाते हैं जैसे वस्त्रों को झाड़ देने पर धूल छूट जाती है. प्रेम पूर्वक यदि उसे बुलाएँ तो वह प्रकट भी होता है और नित्य नवीन रस का अनुभव कराता है. उस प्रेम के आगे संसार की अमूल्य से अमूल्य वस्तु भी कमतर है. उसका स्मरण ऐसी ऊँचाइयों पर ले जाता है जहाँ कुछ शेष नहीं रह जाता. जहाँ केवल वही रह जाता है. अपना आपा तो रहता ही नहीं, जो मिथ्या है, उसे तो नष्ट होना ही है, जो है उसी की सत्ता रह जाती है. उसी के नाते तो हमें इस सृष्टि से प्रेम है. उसे हमारा प्रेम भरा दिल ही चाहिए और कुछ नहीं, उस पल में उसके और हमारे मध्य और कुछ नहीं रहता. न संसार, न कोई इच्छा...बस दो ही सम्मुख होते हैं. वह प्रिय है, सम्पूर्ण है, अनंत है कि उसमें सब समाया है, फिर उसके बिना यहाँ कुछ और है ही नहीं, वह एक क्षण के लिये भी हमसे दूर नहीं है.
अमूल्य वचनों का खज़ाना ।
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित...ईश्वर प्रेम के समान कुछ भी नहीं है...आभार
ReplyDeleteइमरान, व कैलाश जी, आप दोनों का स्वागत व आभार !
ReplyDelete