साधना के आरम्भ में एक भक्त अथवा साधक के लिये उसका इष्ट ही एकमात्र आराध्य होता है, उसी में उसे सभी देवी-देवताओं के दर्शन होते हैं. जैसे वृक्ष की जड़ों को सींचने से उसके हर अंग तक जल पहुँच जाता है वैसे ही एक की पूजा करने से सबकी पूजा हो जाती है. आगे जाकर वह सबमें उस एक को देखने लगता है. वह जान जाता है कि कहीं भी बंधना नहीं है, मुक्ति के पथ पर चलना शुरू किया है तो जंजीर सोने की भी हो तो उसे कटवा देना चाहिए. सतोगुण तक जाकर उससे भी पार जाना होता है. अस्तित्त्व हमारी हर छोटी बड़ी इच्छा को पूर्ण करना चाहता है, पर हम उसका प्रतिदान नहीं दे पाते हैं. प्रेम हमें संसार की हर जड़-चेतन वस्तु के प्रति सजग बनाता है. परम को प्रेम करें तो वही प्रेम उसकी सृष्टि की ओर प्रवाहित होने लगता है.
bahut sundar vyakhya.
ReplyDeleteसही है!
ReplyDeleteसूफ़ियाना विचार।
अति सुन्दर !!
ReplyDeleteकलमदान